नवाज देवबंदी
नवाज देवबंदी उर्दू शायरी का एक मशहूर नाम हैं. कोई महफिल हो या फिर संसद. उनके अशआर अपनी दमक बिखेरते रहे हैं नवाज देवबंदी का जन्म 1990 में हुआ. उर्दू से जर्नलिज्म पर रिसर्च कर पी.एच.डी की और वो डॉ. नवाज़ देवबन्दी हो गए.
1. शायर बनने की शुरुआत कहां से हुई?
बचपन मासूम होता है. न ही किसी को ये पता होता है कि वो बड़ा होकर क्या बन जाएगा. मेरा भी कोई मंसूबा नहीं था. ये कुछ कुदरत पर डिपेंड करता है. दूसरी क्लास में पढ़ता था. स्कूल में प्रेयर होती थी. लब पे आती है दुआ बनके तमन्ना मेरी, सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा और जन गण मन. ये सब मैं बहुत ही मन से पढ़ता, गाता था. टीचर भी मुझसे ही पढ़वाते थे. और तारीफ करते थे. ये हौसला अफजाई ही दिलचस्पी बढ़ाती गई. और शायरी के करीब आता गया. 15 अगस्त या 26 जनवरी पर स्कूल में कल्चरल प्रोग्राम होते थे. उसमें शामिल होता था. और उस स्टेज परफ़ॉर्मर बनने की झिझक ख़त्म हो गई. यानी किसी भी आर्टिस्ट की कामयाबी के लिए हौसला अफजाई बेहद ज़रूरी है.
2. मौजूदा दौर में देखा जाए तो कुछ ही अशआर लोगों की ज़बान पर चढ़ पाते हैं?
इसकी कई वजह होती हैं. शायर हर शेर लाजवाब पेश करता है. ये लोगों के सुनने पर भी डिपेंड करता है. मौजूदा दौर सोशल मीडिया का दौर है. ऐसे में अगर कॉपी पेस्ट कुछ होता है उससे फर्क नहीं पड़ता. शायर जिंदा रहता है अगर उसकी कही एक लाइन भी लोगों को याद रह जाए. दौर आते हैं और ख़त्म हो जाते हैं शायरी जिंदा रहती है. जगजीत सिंह ने ग़ज़ल गुनगुनायी, उसमें मेरा एक शेर है.
गुनगुनाता जा रहा था एक फ़कीर धूप रहती है न साया देर तक.
3. कोई ऐसा कलाम या किताब जिससे आप बेहद मुतास्सिर (प्रभावित) हुए?
कुछ भी रचने के लिए पढ़ना जरूरी है. मेरे नज़दीक कोई ऐसी किताब या कलाम तो नहीं जिसका नाम लेकर बता सकूं. लेकिन अच्छी और सही बात किसी भी खिड़की से आ सकती है. इसलिए सभी दरीचे खुले रखने चाहिए. मैं हर उम्र के लोगों, चाहे बच्चा हो या बुज़ुर्ग सबको गौर से सुनता हूं.
4. शायरी को नौजवानों तक पहुंचाने के लिए क्या जरूरी है?
शायरी न कोई उम्र रखती है और न मज़हब. बस मुश्किल अल्फाज़ रखती है. ये जरूरी है कि शायरी में गहराई हो. बिनाई (रोशनी) हो. सोशल मीडिया वाले ज़माने में शायरी में अल्फाजों का आसान होना बेहद ज़रूरी है. शायरी दिल-ओ-दिमाग पर दस्तक दे.